Wednesday 2 July 2014

कस्तूरी

मेरी नाभि में बसती है
प्रेम की कस्तूरी
जिसका आभास है मुझे
सुवास का एक दिव्य घेरा
जिसमें सुवासित है मन
संबन्ध जिसका केन्द्र बिन्दु है
मृग की भा्ँति
जीवन भर अपनी ही संधान में
अतृप्त स्पृहा की परिक्रमा करना
मेरी भाग्य रेखाओं में नहीं रचा
उस विधाता ने मुझे ज्ञान दिया है
मनुजता का अभिज्ञान दिया है
मुझे संज्ञान है अपनी सुगंध का
देवदार की पावनता
मलय की शीतलता से निर्मित
मुझमें प्रेमरुपी कस्तूरी अधिवासित है
मेरे पास से गुजरो
मुझसे होकर गुजरो
मुझे छुूकर गुजरो
मुझसे टकराकर गुजरो
हथेलियाँ सूँघना अपनी
मेरी गंध उसका श्रृंगार होगी
जिसमें विलीन हो जाएगा
तुम्हारे मन का अँधेरा
उजाला और प्रसारित होगा
अपने चतुर्दिक वातावरण में सम्मोहन का विलयन
मुझे जन्मजात प्राप्य है
संभव हो तो लिपटना मुझसे
मैं कस्तूरी हूँ
सुवासित करना जीवन
सार्थक्य है मेरा ।

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