Friday 27 June 2014

एक सपना


तुम बात कर रहे थे फोन पर मुझसे । लग रहा था जैसे रंगीन मछलियाँ तैर रहीं हो समंदर में । मैं गुम थी उस आवाज में । जैसे गीली रेत पर लिखता है नाम ऊँगलियों से कोई मीत का । मेरे सपनों का शिकारा लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रहा था ।


तुम्हारे दोस्त तुम्हें छेड़ रहे थे और तुम तनकर तुनक कर बता रहे थे कि कोई नहीं था,, अरे वो तो आफिस का फोन था और मैं हँसती जा रही थी । फिर तुम चले गये।ओझल होने तक निहारते रहे मुझे और मैं मुस्कान से फिर मिलने का वादा करती रही । तुम्हारा मुँह फेरना मन को कचोट गया । बेमन अनमने कदमों से लौट पड़ी घर के लिए पर तलाशती रही बनारस के गंगा घाटों पर तुम्हें । मैं सिसक उठी । नींद खुली मेरी अपनी ही हिचकियों से । यह एक सपना था और इसका टूट जाना इसकी नियति .....!!!

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