Friday 11 July 2014

मन को भरमाना जरुरी होता है

सतरंगा बल्ब जलाया है शाम के साए ने
सफेद दीवार पर छितरा गयी नटखट किरणें
खिड़किी से अंदर आया अँधेरा जमींदोज होने लगा
उफनाई नदी लील गयी आखिरिी सीढी भिी
घाट पर छुूट गया एक सीप
जिसमें बन्द कहानी को मोती नहीं बनना था
आ्ँगन वाली गौरैया भिी बतियाना भुूल गयी
ताल वाली मछली से
पंख पर रखा आसमान उम्मीदों की परवाज लिए
सपनों के बोझ से थकने लगा है
झिलमिल सी रेत को बन्द कर रखा है
शीशे के मर्तबान में
वक्त अलट पलट कर सिद्ध कर रहा हमें
तहखानों में दफ्न सुनहरी मछली काली हो गयी
और मैं लिख रही हूँ सफेद कागज पर सफेद रंग से
इन्द्रधनुषी कविता
मन को भरमाना जरुरी होता है...!!!


Monday 7 July 2014

अपने जैसा होना..

इतना भिी आसान नहीं होता अपने जैसा होना
लड़ना पड़ता है एक महायुद्ध स्वयं से ही
अपने जैसा बने रहने के लिए
जीवन नित नवीन अध्याय पढाता रहता है
सीखा गया पाठ एक द्वन्द छोड़ देता है
अतीत के पन्नों पर लिखा गया दीर्घ प्रश्नोत्तर
वस्तुनिष्ठ हो जाता है
वर्तमान उस वस्तुनिष्ठता में खंगालता है
भविष्य में अपने जैसे बने रहने की संभावना
यह गन्तव्य इतना सरल नहीं होता
न सुघड़ होती है पथ की छा्ँव
वक्त की छेनियों से तराशा गया मन
निरन्तर विचार हथौड़ियों की घन गर्जना से
सजग रहता है अपने नहीं होने के प्रति
वह स्वयं ही मिटाता रहता है शनैः शनैः
अपने जैसे होने के सभी साक्ष्य
एक दिन वह बन जाता है दुनियादार
समझदार,धारदार,प्रखर,मुखर
और प्रेम को करनी पड़ती है आत्महत्या
सम्बन्ध तौल कर तय किए जाते हैं
नफा नुकसान की तराजू पर
वह मर जाता है उसी क्षण
जिस क्षण वह नहीं रहता स्वयं जैसा
इतना भिी आसान नहीं होता
अपने जैसे होना......!!!

Friday 4 July 2014

प्रतीक्षा....!!

तुम अक्सर भेज देते हो
एक आश्वासन
अपनी छद्म मुस्कान में लपेट कर
जाने कितनी तहों में रखा गया जीवन
झलक कर खो जाता है
जीवन के हर विलोम का अर्थ ढू्ँढ रहे हो तुम
अँधेरा,दुःख,खोना,विरह,तड़प,पीर,व्यथा
सब व्यक्त हैं ,बस कथाएँ लुप्त हैं
उस विपरीत का आकर्षण ले जा रहा तुम्हें
दूर बहुत दूर जीवन की जीवटता से
हारा हुआ पथिक उल्टे पाँव ही चलता है
बुद्ध ने तो जीवन दर्शन ढू्ँढा
ज्ञान प्राप्त किया.....
उसी पथ का अनुसरण तुम भिी कर रहे
मेरी प्रार्थनाएँ उस पथ को आलोकित करेंगी
तुम आना प्रश्नों का उत्तर लेकर
इस सभ्य मानवता के आवरण को चीर कर
उस असभ्य जगत में लौटकर
जब आवरण की आवस्कता नहीं थिी सभ्यता को
शब्द का मोहताज नहीं था संप्रेषण
प्रेम मात्र प्रेम था
रीति रिवाज,परंपरा,रुढियों से मुक्त
प्रतिष्ठा और सामाजिक बन्धन से मुक्त
आदिम युग में.....
मैं प्रतीक्षा का दीपक जलाए रहूँगी
जो देहरी सूरज में छुप जाए
और रात के अँधेरे में जगमग हो
वही मेरा घर होगा...!!


Wednesday 2 July 2014

कस्तूरी

मेरी नाभि में बसती है
प्रेम की कस्तूरी
जिसका आभास है मुझे
सुवास का एक दिव्य घेरा
जिसमें सुवासित है मन
संबन्ध जिसका केन्द्र बिन्दु है
मृग की भा्ँति
जीवन भर अपनी ही संधान में
अतृप्त स्पृहा की परिक्रमा करना
मेरी भाग्य रेखाओं में नहीं रचा
उस विधाता ने मुझे ज्ञान दिया है
मनुजता का अभिज्ञान दिया है
मुझे संज्ञान है अपनी सुगंध का
देवदार की पावनता
मलय की शीतलता से निर्मित
मुझमें प्रेमरुपी कस्तूरी अधिवासित है
मेरे पास से गुजरो
मुझसे होकर गुजरो
मुझे छुूकर गुजरो
मुझसे टकराकर गुजरो
हथेलियाँ सूँघना अपनी
मेरी गंध उसका श्रृंगार होगी
जिसमें विलीन हो जाएगा
तुम्हारे मन का अँधेरा
उजाला और प्रसारित होगा
अपने चतुर्दिक वातावरण में सम्मोहन का विलयन
मुझे जन्मजात प्राप्य है
संभव हो तो लिपटना मुझसे
मैं कस्तूरी हूँ
सुवासित करना जीवन
सार्थक्य है मेरा ।

दरख्त




मुझमें रोपा गया सूनापन
दरख्त हो गया है
शजर के पत्ते सारे
वक्त ने जला डाले
कोई सावन न सींच पाया
न हरियाया मन कभी
हरियाली से लदे पेड़ों......
सुनो........
तुम्हारा आज मेरा अतीत रहा कभी
मत हँसो मेरे अतीत पर तुम
छा्ँव मैंने भिी लुटाए हैं बहुत
सूखी शाखों की दुआ है
हरियाली कायम रहे तेरी
मैं वक्त का उम्रदराज पल हूँ
मेरे वंशज......
तुझमें जिन्दा हूँ ।